मेरी सदा’ आज की परिवेश की एक अधूरी परन्तु सच्ची प्रेम कहानी है. जहाँ एक तरफ आदमी चाँद पर पहुँच गया है, वही दूसरी तरफ आज कुछ लोग अपने घरों से निकलना नहीं चाहते. यह कहानी है मेरी, ‘अन्जानी और अनिल’ की. हम जो एक दुसरे से वादा किये थे, जीवनभर साथ निभाने और एक साथ सामाजिक कुरीतियों से लड़ने का.
मैं उसे अन्जानी कहकर बुलाता हूँ और इससे ज्यादा उसका व्यक्तिगत परिचय देने से इन्कार करता हूँ क्योंकि मैं नहीं चाहता कि वह जो बलिदान अपनों की खातिर दी है, विफल जाये. पर मैं यह जरुर चाहता हूँ कि जिस दर्द में हम दोनों जी रहे हैं, उस दर्द को हमारे अपनो के साथ-साथ वो सारे लोग महसूस करें जो झूठी शान, ईज्जत और मर्यादा कि खातिर हम बच्चों को ग़मों के सागर में झोक देते हैं. यदि हम बच्चे अपनो की इज्जत और मर्यादा का ख्याल रखते हुए अपना रिश्ता निभाते हैं, तो उन्हें भी हमारी भावनाओं का क़द्र करते हुए समाज के सम्मुख आना चाहिए. जब हमारा धर्म, भगवान और कानून अपना जीवनसाथी चुनने और घर बसाने का अधिकार देते हैं तो इसे पूर्ण करने के लिए आपका आशीर्वाद साथ क्यों नहीं? इसका मतलब या तो धर्म, भगवान और कानून गलत हैं या फिर हमारी झूठी शान, इज्जत और मर्यादा…
अन्जानी सिर्फ एक नाम नही अपितु यह प्यार, संस्कार, परिश्रम, समझदारी, बुद्धिमता, जिम्मेदारी और सबसे बड़ी बात त्याग की जीती जागती मूरत है. जिसे मैं अपने ख्यालों में बसाये हुए बड़ा हुआ. कभी सोचा नहीं था कि सपने भी यूँ सच हुआ करते हैं. पर उससे मिलने के बाद पता चला कि यदि आपकी चाहत सच्ची हो तो आसमान से तारे टूटकर जमीं पर गिर जाया करते हैं और उससे बिछड़ने के बाद पता चला कि जबतक हमारा समाज और अपने न चाहे तबतक खुदा लाख कोशिश कर ले, दो दिल कभी एक नहीं हो सकते. अन्जानी अपनी चार बहनों में सबसे छोटी और दो भाइयों से बड़ी है. वह बचपन में बहुत ही नटखट और शरारती थी. वह जिंदगी के हरेक पल को अपने अर्थों में जीना चाहती थी. लडको की तरह छोटे-छोटे बाल रखना, boys ड्रेस पहनना और साइकिलिंग उसके शौक हुआ करते थे. परन्तु वह ज्यों-ज्यों बड़ी होती गयी त्यों-त्यों उसे अपने घर की जिम्मेदारियों का एहसास होता गया. यूँही वक्त गुजरता गया और साथ ही साथ एक-एक करके तीनों बड़ी बहनों की शादियाँ होती गयी. कब बचपन की दहलीज पार की, उसको इस बात की खबर तक नहीं हुई. अपनी पढाई के साथ-साथ घर की सारी जिम्मेदारियां उस पर आ पड़ी. घर के सारे काम, झाड़ू-पोछा से लेकर चूल्हा-चाकी तक वह खुद करती. यहाँ तक की घर के सभी सदस्यों के कपडे इकटठा करके साफ करती. इसके साथ-साथ रातों को जागकर सूत काटा करती ताकि घर को आर्थिक रूप से मदद मिल सके. कारण घर की आर्थिक स्थिति का सही न होना. चूँकि वह जीवन में आगे बढ़ना चाहती थी इसलिए पापाजी ने उसकी पढाई यह सोचकर जारी रखी कि यदि पढ़-लिख लेगी तो अपनी बिरादरी में कोई ठीक-ठाक लड़का देखकर उसके हाथ पिल्ले कर दूंगा और अपनी आखिरी जिम्मेदारी से भी मुक्त हो जाऊंगा. आख़िरकार लड़किया माता-पिता के लिए बोझ या जिम्मेदारी ही तो होती हैं जिससे वो जल्द से जल्द मुक्ति चाहते हैं. यह हमारे समाज का वास्तविक रूप है जहाँ एक तरफ हम औरत को देवी का दर्ज़ा देते हैं वही दूसरी तरफ उसे दासी या क़र्ज़ समझते हैं. वैसे पापाजी को फक्र था कि उनके पास बेटी के रूप में एक बेटा हैं. मगर किस बात का……. यक़ीनन जब तक हमें अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है तो हर रिश्ता अच्छा लगता है. पर वही….
मैं अपने चार भाइयों और एक बहन में तीसरे नंबर का हूँ. भैया और दीदी की शादी कब की हो चुकी हैं. पर मैं अबतक शादी नहीं किया क्योंकि मैं पहले कुछ बनना चाहता था. वरना यदि घर वालों का बस चलता तो मैं अभी दो बच्चों का बाप होता. चूँकि मेरे विचार बचपन से ही कुछ हट कर थे, अतः मैं अपने घर के साथ-साथ गाँव का भी आँख का तारा था. मेरे ऊपर घर की कोई जिम्मेदारी नहीं थी. बस खाना, पीना, सोना, पढ़ना और……कुछ नहीं. मैं अक्सर एकांत में बैठकर, चिंतन और मनन किया करता था; इस ब्रह्माण्ड और इसके रहस्यों को लेकर. ऐसे ही लोगों की भीड़ में में खुद को तलाशता हुआ बड़ा हुआ. मेरे इस प्रकृति को लेकर मेरे घर वाले हमेशा चिंतित रहे. उन्हें लगता था कि मैं कहीं सन्यासी हो जाऊंगा. जो कि एक घर के लिए अभिशाप हैं. यदि कोई सन्यासी बन जाता है तो उसके घरवालों के लिए इससे कोई बड़ी डूब मरने वाली बात नहीं हो सकती. वही यदि चोर या डाकू बन जाता है तो एक बाप फक्र के साथ सीना तानकर चलता है. यह हमारे समाज का एक ऐसा कटु सत्य हैं जिसे हम स्वीकार नहीं करना चाहते, पर इससे हम इंकार भी नहीं कर सकते हैं. मैं इसकी परवाह किये बिना चाहता था कि इन सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों के विरुद्ध एक अभियान चलाया जाय जो भारतीय संस्कृति को अन्दर ही अन्दर खोखला करते जा रहे हैं.
मैं उसे अन्जानी कहकर बुलाता हूँ और इससे ज्यादा उसका व्यक्तिगत परिचय देने से इन्कार करता हूँ क्योंकि मैं नहीं चाहता कि वह जो बलिदान अपनों की खातिर दी है, विफल जाये. पर मैं यह जरुर चाहता हूँ कि जिस दर्द में हम दोनों जी रहे हैं, उस दर्द को हमारे अपनो के साथ-साथ वो सारे लोग महसूस करें जो झूठी शान, ईज्जत और मर्यादा कि खातिर हम बच्चों को ग़मों के सागर में झोक देते हैं. यदि हम बच्चे अपनो की इज्जत और मर्यादा का ख्याल रखते हुए अपना रिश्ता निभाते हैं, तो उन्हें भी हमारी भावनाओं का क़द्र करते हुए समाज के सम्मुख आना चाहिए. जब हमारा धर्म, भगवान और कानून अपना जीवनसाथी चुनने और घर बसाने का अधिकार देते हैं तो इसे पूर्ण करने के लिए आपका आशीर्वाद साथ क्यों नहीं? इसका मतलब या तो धर्म, भगवान और कानून गलत हैं या फिर हमारी झूठी शान, इज्जत और मर्यादा…
अन्जानी सिर्फ एक नाम नही अपितु यह प्यार, संस्कार, परिश्रम, समझदारी, बुद्धिमता, जिम्मेदारी और सबसे बड़ी बात त्याग की जीती जागती मूरत है. जिसे मैं अपने ख्यालों में बसाये हुए बड़ा हुआ. कभी सोचा नहीं था कि सपने भी यूँ सच हुआ करते हैं. पर उससे मिलने के बाद पता चला कि यदि आपकी चाहत सच्ची हो तो आसमान से तारे टूटकर जमीं पर गिर जाया करते हैं और उससे बिछड़ने के बाद पता चला कि जबतक हमारा समाज और अपने न चाहे तबतक खुदा लाख कोशिश कर ले, दो दिल कभी एक नहीं हो सकते. अन्जानी अपनी चार बहनों में सबसे छोटी और दो भाइयों से बड़ी है. वह बचपन में बहुत ही नटखट और शरारती थी. वह जिंदगी के हरेक पल को अपने अर्थों में जीना चाहती थी. लडको की तरह छोटे-छोटे बाल रखना, boys ड्रेस पहनना और साइकिलिंग उसके शौक हुआ करते थे. परन्तु वह ज्यों-ज्यों बड़ी होती गयी त्यों-त्यों उसे अपने घर की जिम्मेदारियों का एहसास होता गया. यूँही वक्त गुजरता गया और साथ ही साथ एक-एक करके तीनों बड़ी बहनों की शादियाँ होती गयी. कब बचपन की दहलीज पार की, उसको इस बात की खबर तक नहीं हुई. अपनी पढाई के साथ-साथ घर की सारी जिम्मेदारियां उस पर आ पड़ी. घर के सारे काम, झाड़ू-पोछा से लेकर चूल्हा-चाकी तक वह खुद करती. यहाँ तक की घर के सभी सदस्यों के कपडे इकटठा करके साफ करती. इसके साथ-साथ रातों को जागकर सूत काटा करती ताकि घर को आर्थिक रूप से मदद मिल सके. कारण घर की आर्थिक स्थिति का सही न होना. चूँकि वह जीवन में आगे बढ़ना चाहती थी इसलिए पापाजी ने उसकी पढाई यह सोचकर जारी रखी कि यदि पढ़-लिख लेगी तो अपनी बिरादरी में कोई ठीक-ठाक लड़का देखकर उसके हाथ पिल्ले कर दूंगा और अपनी आखिरी जिम्मेदारी से भी मुक्त हो जाऊंगा. आख़िरकार लड़किया माता-पिता के लिए बोझ या जिम्मेदारी ही तो होती हैं जिससे वो जल्द से जल्द मुक्ति चाहते हैं. यह हमारे समाज का वास्तविक रूप है जहाँ एक तरफ हम औरत को देवी का दर्ज़ा देते हैं वही दूसरी तरफ उसे दासी या क़र्ज़ समझते हैं. वैसे पापाजी को फक्र था कि उनके पास बेटी के रूप में एक बेटा हैं. मगर किस बात का……. यक़ीनन जब तक हमें अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है तो हर रिश्ता अच्छा लगता है. पर वही….
मैं अपने चार भाइयों और एक बहन में तीसरे नंबर का हूँ. भैया और दीदी की शादी कब की हो चुकी हैं. पर मैं अबतक शादी नहीं किया क्योंकि मैं पहले कुछ बनना चाहता था. वरना यदि घर वालों का बस चलता तो मैं अभी दो बच्चों का बाप होता. चूँकि मेरे विचार बचपन से ही कुछ हट कर थे, अतः मैं अपने घर के साथ-साथ गाँव का भी आँख का तारा था. मेरे ऊपर घर की कोई जिम्मेदारी नहीं थी. बस खाना, पीना, सोना, पढ़ना और……कुछ नहीं. मैं अक्सर एकांत में बैठकर, चिंतन और मनन किया करता था; इस ब्रह्माण्ड और इसके रहस्यों को लेकर. ऐसे ही लोगों की भीड़ में में खुद को तलाशता हुआ बड़ा हुआ. मेरे इस प्रकृति को लेकर मेरे घर वाले हमेशा चिंतित रहे. उन्हें लगता था कि मैं कहीं सन्यासी हो जाऊंगा. जो कि एक घर के लिए अभिशाप हैं. यदि कोई सन्यासी बन जाता है तो उसके घरवालों के लिए इससे कोई बड़ी डूब मरने वाली बात नहीं हो सकती. वही यदि चोर या डाकू बन जाता है तो एक बाप फक्र के साथ सीना तानकर चलता है. यह हमारे समाज का एक ऐसा कटु सत्य हैं जिसे हम स्वीकार नहीं करना चाहते, पर इससे हम इंकार भी नहीं कर सकते हैं. मैं इसकी परवाह किये बिना चाहता था कि इन सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों के विरुद्ध एक अभियान चलाया जाय जो भारतीय संस्कृति को अन्दर ही अन्दर खोखला करते जा रहे हैं.

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