Friday, 29 June 2018

जिद्दी औरत

जिद्दी औरत की
खोपड़ी में कुछ नहीं होता
वह हो जाती है
काठ या फिर लोहा
जिसमें धड़कती नहीं है साँस
उभरते नहीं हैं विचार।

वह कैकेयी होकर
उतारु हो जाती है आखिरी साँस तक
ढ़ोने के लिये वैधव्य।

उसकी जिद होती है
कौड़ी की तीन
और उपलब्धि-
उससे भी हीन।

मगर क्या फर्क पड़ता है उस पर
जिसे पूरी करनी है अपनी जिद
फिर चाहे क्यों न टूटे आसमान
गिरे बिजली किसी पर।

जिद्दी औरतों ने कराये हैं
महाभारत
और चाही है जान
स्वर्ण मृग की।

बदले में निर्दोष खून बहा है उनका
जिनका इन सबसे
कोई सरोकार न पहले था
न कभी बाद में रहा।

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